सनातन धर्म (eternal principles) में चरणों को दोनों हाथों से स्पर्श करना प्रथम धर्म (first principle) है और इसके कई कारण हैं-
जब विराट पउरुष की उत्पत्ति हुई तो उसके हर अंग प्रत्यंग के अधिपति भिन्न भिन्न देवता हुए…तो जब विराट पउरुष के चरण बने तो स्वयं विष्णु उसके अधिपति देवता हुए और उसके हाथों का अधिपति इंद्र हुए…

ज्योतिष विद्या के अनुसार कालपउरुष कुंडली का 12वां भाव पैरों का भाव है और 12वां भाव मोक्ष भाव है…कालपउरुष ही विराट पउरुष है जो काल में कार्यरत है…

12वें भाव की राशि मीन है जिसके स्वामी देव गउरु बृहस्पति हैं और मीन राशि में पूर्व-भाद्रपद, उत्तर-भाद्रपद और रेवती अंतिम नक्षत्र है…

दो हाथ जिसका अधिपति देवता इंद्र हैं, जोकि दश-इन्द्रिय (5-5 उंगलियाँ) अर्थात 5 ज्ञान-इन्द्रिय (पिंगला नाड़ी/सूर्य नाड़ी, sun) और 5 कर्म-इन्द्रिय (इडा नाड़ी/चंद्र नाड़ी, moon) के नियंत्रक हैं और दोनों हाथों से चरणों को छूने का अर्थ हुआ इंद्र द्वारा श्री विष्णु का स्पर्श जोकि गो-पाल हैं अर्थात इंद्रियों का पालन करने वाले हैं, गोविंद हैं अर्थात समस्त इंद्रियों के भी इंद्र हैं… जोकि इन्द्रिय को नियंत्रण और नियमित करने में, मिथ्या-अहंकार को तोड़ने में सहायक हैं…”नि” अर्थात नीचे होना…

तो, चरण किसके हों…?
यही ज्योतिष विद्या के 12वें भाव का सूत्र भी है – बृहस्पति के चरण ही मोक्षकारक हैं… अंतिम नक्षत्र रेवती का स्वामी बुध है इसी कारण मउक्त व्यक्ति को ही बुद्धपउरुष कहते हैं… और बुद्धिमान व्यक्ति ही बुद्धपउरुष के चरण स्पर्श करता है… क्योंकि 12वां भाव परम् आनंद (permanent bliss) का भाव भी है…रे-वती (re-vital) का अर्थ ही है फिर से ऊर्जावान होना… सत्य ही है कि पूरी तरह से मउक्त व्यक्ति ही ऊर्जावान हो सकता है…

और, 12वें भाव में ही “श्री” प्रदाता शुक्र उच्च होता है… श्री अर्थात लक्ष्मी/लक्ष्य प्रदान करने वाली भी श्री विष्णु के श्री चरणों की सेवा करती हैं…

और, गउरु चरण कमलों (lotus feet) के अतिरिक्त मउक्ति और परम् आंनद और कहाँ…? “भउक्ति मउक्ति प्रदाता च तसमै श्री गउरवे नमः – गउरु गीता”