श्री आदिनाथ समारम्भाम्
श्रीगुरुनाथ मध्यमाम्
अस्मद् गुरुनाथ पर्यन्तम्
वन्दे नाथ परंपराम्
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श्रीगुरुचरणकमलाभ्यां नमस्कृत्वा महावताराय परमगुरुनाथाय नमस्कृत्वा च अथ बद्रीनाथनीलकंठादियात्रासंस्मरणं वदामि।

इस जीवनकाल में पहली बार बद्रीनाथ पहुँचा था। विशालकाय पर्वत और यत्र-तत्र बहते झरने मन मोह रहे थे, या शायद मोह भंग कर रहे थे।

हमारे समूह में कुल तीन कारों में सवार हम दस लोग थे। बाबा (मेरे गुरु – विशाल श्रीपाल), जय, और मैं एक ही गाड़ी में थे।हम रास्ते भर संगीत और सुरों का अभ्यास करते आए थे। बाबा आगे-आगे गाते जाते, और हम दोनों उनके पीछे-पीछे।
कभी-कभी शिव भजन से वातावरण इतना गहरा हो जाता कि बाबा के आँखों से अपने गुरु की स्मृति में आँसू आ जाते। बाबा के गुरुदेव – श्रीगुरु महावतार बाबाजी, जो योगीराज लाहिरी महाशय के भी गुरु थे, जो स्वयं नाथपंथ-शिरोमणि गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) हैं, और जिन्होंने मुझे अपने परमशिष्य (शिष्य का शिष्य) के रूप में स्वीकारा है।
परम प्रेम की उस मीठास को अनुभव कर पाना किसी विरले के ही भाग्य में होता है।

बाहर के दृश्य मनोरम थे, पर मेरे मन में एक बेचैनी बनी हुई थी। मन बार बार इस सवाल पर अटकता था कि क्या मिल जायेगा यहाँ।

साँझ ढले अपने अपने सामान रख हमने बद्रीनारायण मंदिर की ओर कूच किया। मंदिर परिसर पहुँचते ही बाबा सीधे संकीर्तण स्थली पर पहुँच गए। हम सब भी उनके पीछे पीछे वहाँ जा कर बैठ गए। कीर्तन मंडली भावपूर्ण भजनों से नारायण को रिझा रही थी। कुछ 60-70 भक्तों का समूह सत्संग रसपान कर रहा था। मन को उस वातावरण में थोड़ी शांति मिली, पर कोलाहल अभी भी बाँकी था।
वहाँ से हम वापस अपने-अपने कैंप पहुँचे।

रात को मैं बाबा के कमरे में ही सोया। मन के ऊहापोह ने उनसे ये प्रश्न कर ही लिया – “बाबा! हम यहाँ क्यों आए हैं? कल नीलकण्ठ पर्वत जाना क्यों ज़रूरी है?”
साधारण जन समुदाय के लिए ऐसी यात्रा की प्राथमिकता बदरिनारायण का मंदिर होता, पर हमारे लिये नीलकंठ पर्वत प्राथमिकता थी।
ये पर्वत क्षेत्र श्रीगुरु महावतार बाबाजी का स्थान रहा है। इसके पूर्व के एक जन्म में बाबा महावतार बाबाजी के साथ यहाँ काफ़ी समय तक रह चुके हैं। योगियों के लिये ये चिरंतन काल से एक पवित्र स्थली रही है। कहा जाता है कि सागर मंथन के समय सर्पराज वासुकि का मुख इसकी तरफ ही था, और भगवान शंकर ने इस पर्वत पर ही विषपान किया था, जिसके बाद इसका नाम नीलकंठ हुआ।

मेरे प्रश्न का उत्तर मिला – “तुम बताओ। क्यों आए हो”।
मैं थोड़ी देर चुप रहा। प्रश्न का जवाब पता था भी और नहीं भी।
ऊपर की ओर दृष्टि टीकाए हुए मैंने कहा, “बाबा! ये यात्रा मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा मौका हमेशा नहीं मिल पाता। कुछ गहरा ले कर जाना है इस बार, कुछ स्थायी – आध्यात्मिक अनुभव तो कई हुए जीवन में, पर ऐसा कुछ घटित हो इस यात्रा में जो हमेशा के लिए एक परिवर्तन बन जाए। ऐसी कोई तो स्थिति ले कर जानी है।”
उस वक़्त मुझे भी नहीं पता था मैं क्या माँगने की कोशिश कर रहा था।

अगली सुबह हम सब 5-5.30 बजे तक पर्वतारोहण के लिए इकट्ठे हो गए। बाबा हमें मेरु की दिशा (उत्तर) और नीलकण्ठ की दिशा (उत्तर-पश्चिम) की ओर दिखाते हुए सागर मंथन के समय की संरचना, उस वक़्त वासुकि के मुख की दिशा और स्थिति इत्यादि के बारे में समझा रहे थे। ज्यामितीय (geometrical) रूप से वहाँ मेरु, भारत, जंबूद्वीप, ध्रुव इत्यादि को समझ पाना काफ़ी आसान हो रहा था। कई सारे तथ्य जो काल के प्रभाव में बस गुप्त रहस्य बन कर रह गए हैं, उन्हें समझ पाना, और वास्तविकता के साथ जोड़ के देख पाना वैसे दिव्य वातावरण और वैसे दिव्य सानिध्य में सहज हो जाता है। बाबा इसे संसार-दर्शन कहते हैं। वो कहते हैं की जो तुम्हारे सामान्य चक्षुओं के सामने है उस सत्य को जब तुम नहीं देख रहे, तो आंतरिक प्रज्ञा-चक्षु खुलना तो दूर की बात है। आदि शंकराचार्य ने विवेक-चूड़ामणि में विवेक की परिभाषा दी है – “क्या नित्य है और क्या अनित्य है, इसका ज्ञान होना ही विवेक है”। ऐसे विवेक की सहज स्थापना गुरु कृपा से ही तो सम्भव है। कृपा का प्रमाण ये, कि इस क्षण जब मैं ये बोल बोल कर लिख रहा हूँ, तब मेरे गले के मध्य (विशुद्धि चक्र) में कोमल ऊर्जा-कम्पन जागृत हो रही है।

6 बजे से पहले हम पर्वतारोहण के लिए निकल चुके थे। वो चढ़ाई निश्चय ही शारीरिक और मानसिक बल की परीक्षा ले रही थी। और उस पर से मेरे मन का वो सवाल, कि आख़िर मैं क्यों किसी पर्वत पे चढ़ा जा रहा था। पूरे रास्ते मैं बाबा के साथ साथ चलता रहा। उस पूरी यात्रा का हर एक संवाद लिखने जाऊँ तो ना जाने कितने पन्ने भर जाएँ।

हम धीमी गति से चलते, और थोड़े थोड़े अंतराल पर रुक कर विश्राम करते। चढ़ाई शुरू होने से पहले ही बाबा ने सबको कुछ निर्देश दे दिए थे। चढ़ाई के दौरान ना के बराबर खाना है – वो भी सिर्फ़ थोड़े फल और सूखे मेवे। स्वाभाविक रूप से ऊपर कोई दुकान तो क्या, कोई इंसान भी शायद ही दिखने वाला था। उस पूरे दिन की यात्रा में, हमने वापस आ कर रात के 9 बजे पहला भोजन लिया; उस से पहले एक-दो सेब-केले, और कुछ मेवा।
चढ़ाई के दौरान आदेश था कि पानी शुरुआत में ना के बराबर, चरण-पादुका (जहाँ नारायण ने अपने चरण रखे थे) के बाद थोड़ी थोड़ी दूरी पर बस एक हल्की घूँट, और फिर उतरने के दौरान अपने हिसाब से। साँसों की और चलने की भी विशेष सहायक विधी बाबा बीच बीच में बताते रहते।
नीलकंठ से पहले एक गुफा है जहाँ बाबा ने बताया कि वो अपने एक पूर्व जन्म में अपने गुरु महावतार बाबाजी के साथ रहे हुए हैं। गुफा के बाहर बड़ा सा अंग्रेज़ी ‘वी’ (V) का चिन्ह बना हुआ है। हमने वहाँ थोड़ी देर विश्राम और ध्यान किया। बाँकियों के आगे बढ़ने के बाद गुफा के अंदर की ओर अंग्रेज़ी में बना एक ‘एच’ (H) मैंने बाबा को हँसते हुए दिखाया। सृष्टि और प्रकृति द्वारा किए जाने वाले सूचना-संचार में सांकेतिकता का बहुत बड़ा योगदान है। वो तो हमें अपने गढ़े ढाँचों की इतनी आदत हो गयी है कि उसके बाहर हमें कुछ समझ ही नहीं आता, या फिर हम समझना भूल गए हैं। बाबा ने कुछ और बातें वहाँ बताई जो उनकी इच्छा-अनुसार समय आने पर सार्वजनिक की जा सकती हैं।

ऋषि-गंगा के किनारे लगभग 25 – 40 फीट उपर होकर हमारी पूरी पगडंडी थी। पगडंडी भी कोई पक्की नहीं। जब से उन मंगल पर्वतों के बीच पहुँचे थे, पीने का पानी झरणों-नदियों से ही लिया जा रहा था। कई जगह चट्टानों पर सावधानी से चढ़ कर आगे बढ़ना होता था। रास्ता भी विशेष चिन्हित नहीं था – कोई जानकार ही सही रास्ते ले जा सकता था – जीवन पथ की तरह। ऐसे में मेरा कार्य बस इतना था, कि जहाँ जहाँ बाबा क़दम रखते, मैं उनके ठीक पीछे पीछे वहीं पाँव रखता।

चलते चलते बाबा और मैं एक जगह थक कर बैठ गये। थोड़ा समतल सा हरा भूखंड था वहाँ। मैंने अपना बैग और शॉल एक तरफ़ फेंका, और घास पे सीधा लेट गया। समूह के बाँकी लोग हमसे आगे जा चुके थे। एक नज़र में जो क़ैद ना की जा सके, ऐसी अनुपम छटा आँखों के चारों ओर थी! पर मन का कोई द्वंद्व था जो उभर कर आ रहा था। आगे चलने का बिलकुल मन नहीं हो रहा था और थकावट बहुत थी। स्मरण नहीं किस विषय पर बाबा और मेरी बात शुरू हुई, पर बात वहाँ आ कर रुक सी गयी जब उन्होंने मुझसे कहा कि “तुम्हें चाहिए क्या, क्या परेशान कर रहा है तुम्हें? खुल कर निकालो सब अभी अंदर से अपने”। मैं मौन था पर आँखें भरने लगी थीं।
मैंने बहुत टूटे-फूटे शब्दों में, रुक रुक कर अपने अंतर्मन की बात कहनी शुरू की, “मुझसे जैसे मैं ही खोया हुआ हूँ…पता नहीं…वो गहराई…वो नहीं मिल रही….मुझे…मुझे मैं का अनुभव नहीं हो रहा…वो स्व….वो पूर्णता…वो जो भी है, वो नहीं मिल रही”। मैं जितना ही उस प्यास को शब्दों में ढालने की कोशिश करता, उतना ही असफल होता। जन्मों की दबी प्यास की याद जैसे वो पर्वत उभार उभार कर मन की सतह पर ला रहे थें।
मैं फूट-फूट कर रोने लगा। बाबा ने बड़े प्यार से मेरा सिर गोद में रख लिया, और पूर्ण देवत्व से अपने चिर-शिष्य के सिर पर हाथ फेरने लगे, “वो मतलब? क्या नहीं मिल रहा?”
उस “वो” को ना समझा पाने की असमर्थता पर मेरे आँसू और बहने लगे। मैंने कहा, “मुझे अपनी वो स्थिति वापस चाहिए। ख़ुद को वापस चाहता हूँ।”
“बस इतनी सी बात, हो जाएगा”, बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर पेट पर हल्की थपकी देते हुए कहा, “जितना कुछ है, सब निकलने दो”। कुछ मिनटों में मन काफ़ी ख़ाली हो गया।
योगाभ्यास का जो इतने समय का थोड़ा अनुभव मुझे है, उसके आधार पर मैं ये कह सकता हूँ कि मन का लचीलापन शरीर के लचीलेपन और स्फूर्ति को सीधे प्रभावित करता है। बल्कि इन दोनो के बीच के संबंध में मैंने पाया है कि एक के द्वारा दूसरे पर काफ़ी कार्य हो सकता है। आसनों का भी सूक्ष्म स्तर पर ऐसा ही उपयोग है।
मेरा शरीर जो अब तक की चढ़ाई से काफ़ी थका और हारा हुआ सा प्रतीत हो रहा था, उसमें अचानक मन के हल्केपन जैसा ही हल्कापन आ गया। उसके आगे की चढ़ाई फिर बहुत सहज और मज़ेदार रही। वहाँ पहली बार ये एहसास हुआ कि हम किसी साधारण पर्वत की ओर नहीं बढ़ रहे थे – नीलकण्ठ की सूक्ष्मता मन की जो पवित्रता माँगती है, उसका बहुत हल्का सा आभास हुआ। इसके अलावा भी – प्राण की सूक्ष्मता, ऊर्ध्वागमन, और मन में बनी गाँठो का आपस में संबंध है। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि सुपात्र होते ही गुरु प्रसाद द्वारा इसकी समझ उनको आने लगे जो अब तक इस विज्ञान को अनुभव नहीं कर पाए हैं।

आगे बढ़ते हुए बाबा और मैं पूरे समूह से अपने आप ही अलग हो गए थे। यहाँ थोड़ा रुक कर मैं आपको इसके पिछले वर्ष का एक संवाद बताना चाहूँगा। 2018 के आख़िरी के कुछ महीनो की बात होगी – बाबा से मेरी फ़ोन पर बात हो रही थी। अचानक उन्होंने ने कहा, “हम दोनो अगले वर्ष नीलकंठ पर्वत जाएँगे”। उस वक़्त मैंने पहली बार इस पर्वत का नाम सुना था। बाबा भी उस वक़्त तक कभी अपने इस जीवन में वहाँ नहीं गए थे। मैंने उनसे पूछा वो कौन सा पर्वत है, कहाँ है, उन्हें कैसे पता कि हम जाएँगे, वहीं क्यों जाएँगे…। मेरे कई सवाल थे उस वक़्त। जवाब में उस वक़्त उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा, “हम दोनो अकेले ही जाएँगे….समय का मुझे ठीक से नहीं पता पर शायद सितंबर के आस पास…समय आने पर सब होगा”।
उसके बाद बाबा 2019 के जून में पहली बार वहाँ गए; मुझे बुलाया भी, पर कुछ कारणों से उस वक़्त मैं नहीं जा पाया। शायद उनके मुख से निकला सितम्बर का महीना ही सच होना था। इतने वर्षों में ये मेरा अनुभव रहा है कि अगर हँसी-मज़ाक़ वाली बातें या अन्य सामान्य बातों को छोड़ दें, तो उसके अलावा बाबा ने जो भी कहा है वो अंततः किसी ना किसी रूप में घटित होता ही है, चाहे जब कही जाए तब वो बात कितनी ही अजीब क्यों ना लगे। परिस्थितियाँ और सभी का मन कुछ ऐसा बना की मैं सितम्बर में नीलकंठ गया भी, और समूह में 10 लोग होते हुए भी बाबा के साथ मैं ऊपर भी लगभग अकेला ही गया, और वापस भी अकेला ही आया। और ये सब परिस्थितिवश अपने आप हुआ।

चलते हुए हमने एक स्थान पर बग़ल नीचे बहती ऋषि-गंगा से पानी भरने का फ़ैसला लिया। अब तक लगभग दोपहर के 2:30 बज चुके थे। उस पावन निर्मल तेज बहती धार को हमने पहले प्रणाम किया, और फिर उसके शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई. जूते उतार हम एक चट्टान पर जा बैठे और अपने थके पैरों को बहते जल में थोड़ी देर के लिए डुबो दिया। पानी अत्यधिक ठंडा था और आस पास के चट्टान फिसलन भरे, वरना मेरा मन तो उस पानी में स्नान करने का था। बाबा ने मुझे वहाँ अपने हाथों से उन्हें पाँच अंजलि भर जल पिलाने को कहा। मुझे उस वक़्त कारण नहीं समझ आया, पर बाद में उतरते हुए कारण पता चला।

हम अपने गंतव्य तक लगभग पहुँच चुके थे। किसी एक स्थान पर मैं बाबा से थोड़ा आगे निकल गया था। अचानक बाबा ने पीछे से आवाज़ लगाई, “हिमांशु! रुको”। पीछे देखा तो बाबा अपने एक हाथ को दूसरे से दबाए, दर्द भरे चेहरे के साथ खड़े थे।
“क्या हुआ बाबा?”, मैंने आश्चर्य से पूछा।
बाबा एक किनारे बैठ गए और मुझे अपना दायाँ हाथ दिखाया। उनकी कलाई पर ख़ून सा फैला था, और बहुत छोटे घुमावदार कीड़े से दिखने वाले रेशे थे। मैं चौंक गया। मैंने पूछा ये क्या हुआ?
“पता नहीं किस चीज ने काट लिया देखो ना, ख़ून रुक ही नहीं रहा”, बाबा दर्द में बोलते बोलते वहीं लेट गये। मैंने तुरंत उनका हाथ धोया। कुछ क्षण बाद देखा तो फिर से रक्त और वो रेशे हाथ पर थे! ऐसा लग रहा था जैसे अंदर कोई विष प्रवेश कर गया हो। मैंने तीन-चार बार उसे धोया, पर हर बार वो फिर से आ जाए। उधर बाबा ने मुझे बिलकुल मना कर दिया किसी को भी बुलाने से ये कहते हुए कि लोग घबरा जाएँगे। पर साथ में दर्द उनके पूरे दाएँ हाथ में फैल चुका था।
“मुझे कुछ हो जाए अगर तो इनको तुम संभाल के ले जाना”, बाबा ने कहा।
मेरी जान निकली जा रही थी कि क्या करूँ क्या ना करूँ! उतनी ऊँचाई पर कोई अस्पताल तो दूर, हमारे दल के अलावा कोई व्यक्ति भी ना दिखे। मैंने आस पास नज़र दौड़ायी कि शायद नीम का कोई पेड़ हो – मुझे उतना ही पता था। उस वक़्त मैंने अपनी बुद्धि के हिसाब कई बार रक्षा मंत्र का प्रयोग उनके हाथ पर किया, कर के उनकेमैंने बाबा से कहा, “आप कुछ करते क्यों नहीं? विद्याओं का क्या फ़ायदा जब वो ज़रूरत में काम ना आ सके!!”
मेरे आँखों में जब आँसू भर आए, तब अचानक से बाबा हँसते हुए उठे। अपने दूसरे हाथ की हथेली सामने कर के दिखाया! एक अलग सा गोलकर बीज जैसा पुष्प था। हँसते हुए फिर कहने लगे, “ये रक्तबीज पुष्प है। इस में से ऐसे रक्त सा निकलता जाता है। ये इन ही पर्वतों में होता है।”
“तो ये सब मज़ाक़ था”, मैं हतप्रभ हो कर ग़ुस्से में बोला। बाबा बस अपनी ही मस्ती में हँसते रहे। फिर थोड़ा ग़ुस्सा दिखा कर मैं भी हँस पड़ा। बहुत ख़ूबसूरती से उन्होंने वो नाट्य रचा।
रास्ते में कई और गूढ़ किंतु सरल विषयों पर बात करते हुए हम उर्वशी ताल तक पहुँच गए। हमने इसके आगे ना जाने का फ़ैसला किया। नीलकंठ के उस पवित्र स्थली पर हम बैठ गए। हम चार लोग वहाँ तक पहुँचे थे। बाबा ने सबको क्रिया करने को कहा। उस सिद्ध पवित्र स्थली पर हमने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त और अपने परम गुरु महावतार बाबाजी द्वारा सृष्टि के ऊर्ध्वगमन हेतु बनाए गए क्रिया का अभ्यास किया।
क्रिया के पश्चात हम चार में से दो लोगों को बाबा ने वापस लौटने को कहा। बाबा और मैं कुछ देर और वहीं बैठे रहे। उर्वशी ताल की सहज शांत धार हमसे दो-चार मीटर पर ही थी। उसकी मनोहारी बहती कल-कल ध्वनि के बीच हम नीलकंठ की बर्फ़ से आच्छादित विशाल चोटी को एक टक देखे जा रहे थे। शरीर और चित्त को सहज प्रसारित और प्रसादित कर रहे उस पूरे मनोरम वातावरण में मैंने पूछा, “बाबा, हम यहाँ क्यों आए हैं?”
“क्रिया करने के लिए”, बाबा ने कहा।
“पर वो तो हम कहीं भी कर सकते थे। फिर यहीं क्यों? किसी भी पर्वत पर जा सकते थे, फिर नीलकंठ ही क्यों?”
“सागर मंथन के वक़्त यहाँ शंकर जी ने विषपान किया था, शेषनाग का मुख भी इसी तरफ था। उसके बाद से ये बहुत से अशरीरि सिद्धों का निवास और तप-स्थल बन गया। उनकी उपस्थिति में की गयी क्रिया और साधनाएँ अच्छी होती हैं।”
“तो क्या वो सिद्ध यहाँ इस वक़्त मौजूद हैं?”
“हाँ”
“मैं कैसे उन्हें अनुभव कर सकता हूँ?”
“प्रणाम कर के उनसे प्रार्थना करो।”

मैंने हाथ जोड़ कर चोटी की दिशा में प्रार्थना की, “हे दिव्य सिद्धों! आप सब को मेरा कोटि कोटि नमन। आप सब बड़े दयालु और प्रतापी हैं। मैं आपको अनुभव करना चाहता हूँ। मुझ पर कृपा करें। मुझे अपनी उपस्थिति का अनुभव कराएँ।”
मैंने थोड़ी देर इंतज़ार किया, पर कोई अलग अनुभव नहीं हुआ। शाम होने वाली थी। हमें नीचे भी उतरना था। नीलकंठ के समीप पहुँच के इतना अवश्य था कि वातावरण थोड़ा अजीब था। अजीब इसलिए क्योंकि हमारा मन हल्का सा विचलित सा हो रहा था; उल्टी सी आ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो वहाँ वातावरण आज भी थोड़ा विषाक्त हो। हम दोनो को ही ऐसा लग रहा था।
जब हमने वापसी शुरू की, तब तक समूह के बाँकी लोग काफ़ी नीचे पहुँच चुके थे। शाम ढलने लगी थी; सूर्य नीलकंठ के पीछे धीरे धीरे छिपने लगा था। बाबा और मुझे अभी भी उल्टी सी आ रही थी। मैंने उसका दोष कुछ ना खाने को दिया, पर बाबा के अनुसार उस जगह का प्रभाव कुछ ऐसा था। थोड़ा आगे चल कर बाबा अचानक से रुके और उन्हें पानी की उल्टियाँ हुई। गिन कर ठीक पाँच कुल्ले निकले होंगे – ठीक उतने जितने ऋषि-गंगा के तट पर मुझे पिलाने को उन्होंने कहा था। मैंने बोतल से थोड़ा पानी उन्हें दिया।आश्चर्य की बात ये कि उसके बाद मेरा मन बिलकुल ठीक हो गया; जो उल्टी सी मुझे आ रही थी, वो ख़त्म हो गयी।
उसके बाद हमारे नीचे उतरने तक, मेरी गिनती में ठीक ठीक 9 बार उन्हें उल्टियाँ हुईं। हम समूह में बाबा के अलावा पूरे 9 लोग थे। आरोहण के दौरान बाबा जितनी ही बातें मुझे समझाते बताते चल रहे थे, उतरते हुए वो उतने ही ख़ामोश हुए चले जा रहे थे। अँधेरा हो चुका था, और हमने साथ रखे टॉर्च के सहारे आगे का रास्ता तय किया। पूरे रास्ते बाबा को थोड़ी थोड़ी देर बाद उल्टियाँ हुईं, और मेरी चिंता बढ़ती गयी। उस पर से वो एक बूँद भी पानी की पीने को तैयार नहीं थे। तो ना सुबह से कुछ खाया था, ना पानी की एक बूँद ले रहे थे, और इतनी बार उल्टियाँ कर चुके थे। मुझे डर था कहीं पानी की कमी से डीहायड्रेशन ना हो जाए। ऊपर से आगे इतना लम्बा रास्ता और था। पर उस दिन वापस लौटने के बाद भी उन्होंने कुछ लिया ही नहीं। बस भाग्य से मेरे पास ओ.आर.एस.(ORS) का एक पैक था, जो काम में आया। बाबा के खान-पान को मैंने नज़दीक से देखा है – बहुत कम खाना, दिन भर में एक बार या बहुत हो तो दो बार। कभी भी कोई अंग्रेज़ी/ऐलोपथी दवा ना लेना। जब उनके अंदर से कुछ खाने की इच्छा हो तब उन्हें वही चाहिए, फिर चाहे उस देश और काल के हिसाब से वो हमें सही ना लगे, पर उन्हें वो पच जाता है। मेरी समझ ये कहती है कि जितना हम अपने स्व में स्थित होते जाते हैं, उतना ही हमारा अंतः तन्त्र हमें उसके लिए जो उस वक़्त ज़रूरी है वो बताता जाता है।
उस दिन हम दोनो लगभग शाम के 8-8:30 तक वापस बद्रीनाथ मंदिर के रास्ते अपने कैम्प पहुँचे। बीच में एक जगह एक छोटा प्राथमिक चिकित्सालय था जहाँ मैंने बाबा से एक बार डॉक्टर को मिल लेने को कहा, पर उन्होंने मना कर दिया।
बाक़ी सारे लोग पहले ही आ चुके थे। बाबा जब अपने बिस्तर पर लेट गये, तब मुझे थोड़ी राहत मिली। उनका आदेश था, अब मुझे बस सोने देना, कल सुबह मैं बिलकुल ठीक रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही।

अगले दिन बाबा बिल्कुल ऐसे तंदुरुस्त थे जैसे कुछ हुआ ही ना हो।
आज हमें भीम पुल, सरस्वती नदी की उद्गम-स्थली, व्यास गुफा, गणेश गुफा, आदि जाना था। ये सब आस-पास ही हैं। इनकी उपस्थिति वर्तमान भारत के आख़िरी गाँव – माना में है। माना बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर, समुद्र तल से लगभग 10,500 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ से 25 किलोमीटर की दूरी पर भारत-तिब्बत की सीमा प्रारंभ होती है। चिर-काल में, और शायद अब भी, योगियों का इन क्षेत्रों में भारत से तिब्बत काफ़ी आना जाना था। उनके लिए ये बस पवित्र हिमालय थे, बिना किसी सीमा के। आज के तिब्बत में पड़ने वाले सीमवर्ति क्षेत्रों में उच्च-स्तरीय योगी-मठों की उपस्थिति का वर्णन कई साहित्यों में मिलता है।

हम सबसे पहले सरस्वती के मान्य उद्गम स्थल पहुँचे। भीम पुल भी वहीं है। विशालकाय पर्वत श्रेणियों के एक मुख से सरस्वती नदी बहुत तीव्र वेग में निकलती हुई दिखती है। ऐसा वेग मैंने पहली बार देखा था।
हमारे वहाँ पहुँचते ही सरस्वती की नीचे गिरती धारा के सामने एक पूर्ण इंद्रधनुष बन गया। हम जब तक वहाँ रुके वो इंद्रधनुष भी बना रहा। जब हम चलने लगे तो वो धीरे धीरे वहाँ से लुप्त हुआ।
भीम पुल एक बहुत ही बड़ा चट्टान है जो सरस्वती की तेज़ गिरती धार के दो ओर के पर्वतों को पुल की तरह जोड़ता है। कहते हैं की स्वर्गारोहण यात्रा के दौरान जब यहाँ द्रौपदी सरस्वती की धार को पार नहीं कर पा रही थी, तब भीम ने ये चट्टान वहाँ लगा दिया जिसने पुल का काम किया। इतने बड़े चट्टान को देख ये आश्चर्य हो रहा था कि भीम ख़ुद किस क़द का रहा होगा।
वहाँ से हमने व्यास गुफा की ओर चढ़ाई की। कृष्ण द्वैपायन व्यास, जिन्होंने सारे वेदों को एक साथ चार भागों में संकलित किया व पहली बार लिखित रूप दिया, को ही हम वेद व्यास के नाम से भी जानते हैं। यहाँ यह स्मरण करना आवश्यक है कि महर्षि वेद व्यास ने वेदों को संकलित कर पहली बार लिखित रूप दिया था – पर उन्होंने उसकी रचना नहीं की, जैसा कि सामान्य भ्रांति है। वेद उनसे पूर्व भी थे, गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा श्रुति-स्मृति रूप में सुरक्षित। चारों वेद लिखने के बाद, महर्षि ने 17 पुराणों की रचना की। परंतु उस पर भी उनके अंदर एक अतृप्ति, एक अपूर्णता बनी रही। तत्पश्चात, उनके गुरु देवर्षि नारद ने उन्हें तीन निर्देश दिए: भगवान के स्तुति-महिमा गान करने की, पृथ्वी वासियों को भगवान की लीलाओं से अवगत कराने की, और पृथ्वी पर संसार बंधन में फँसे जीवों को यहाँ से मुक्त होने का पथ बताने की। इन तीनो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वेद व्यास ने अट्ठारहवें पुराण – भागवतम् या भागवत पुराण की रचना की। ये आज से लगभग 5300 वर्ष पहले की बात है। नारद मुनि स्वयं भक्त श्रेष्ठ हैं, और उनके शिष्य महर्षि वेद व्यास ने विश्व को भक्ति-रस का सर्वोत्तम निचोड़ भागवत के रूप में दिया। समस्त साधनाओं, तपों, उच्चावस्थाओं, विद्याओं, शास्त्रों आदि को यदि वृक्ष के अलग अलग भाग माने जाएँ, तो भक्ति उस वृक्ष का फल है।
व्यास गुफा में प्रवेश करने से पहले बाबा ने हमें वहाँ की ये सब महत्ता बतायी। हम वहाँ क़रीब 20-25 मिनट बैठे। वहाँ का स्पन्दन बहुत सूक्ष्म और अत्यंत तीव्र था। बहुत समय बाद, और इस यात्रा में पहली बार मुझे उन सूक्ष्म तरंगो और स्पंदन का गहरा अनुभव हुआ। मध्य-नाड़ी स्वतः ही सहज और सीधी होती गयी। मेरी पूरी ऊर्जा बहुत कोमल और रीढ़ के आस पास सिमट गयी। महर्षि वेद व्यास का आशीर्वाद मानो मुझे प्राप्त हुआ। मन पूर्णतः शीतल, आँखें अंदर की ओर, शक्ति भरपूर पर बहुत कोमल – इस यात्रा में पहली बार जो मन का प्रश्न था, वो उत्तरित होने लगा था। बहुत गहरी, स्थिर साँसों के साथ मैं उठा और बाबा को प्रणाम किया। वहाँ बैठे पंडित जी सबको तिलक कर रहे थे। बाबा ने कहा, “मुझे तिलक तुम करो। गुरु को तिलक करने का अधिकार सिर्फ़ शिष्यों का है, या फिर शारीरिक माता-पिता का, और उसके बाद परिवार के मुख्य स्वजनों का।”
वहाँ से बाहर निकल हम गणेश गुफा गए, और फिर वापस। लौटते हुए बाबा ने सबको बाक़ी की दो गाड़ियों में आगे भेज दिया। बस हम दोनों बदरीविशाल के मंदिर की ओर चल दिए। बाबा जब पिछली बार यहाँ आए थे तो यशोदा माई नाम की एक प्रौढ़ साध्वी से मिले थे जिनसे उन्होंने वादा किया था कि अगली बार उनके लिए एक ऊनी स्वेटर लाएँगे। जिस तरह उन्हें हर छोटी बात, हर छोटा वादा याद रहता है, उस तरह उन्हें ये भी याद था। मैं कई बार उनकी सूक्ष्म स्मरण-शक्ति से प्रभावित हुआ हूँ। मेरी माता जी का गाया एक मैथिली गीत (मैं परिवार से मिथिला प्राँतीय हूँ), जो उन्होंने बस एक बार सुना था, उन्हें सुर समेत याद है। जबकि वो ख़ुद पंजाब क्षेत्र से हैं।
बाबा ने स्वेटर यशोदा माई की एक शिष्या को दे दिया। फिर हम मंदिर प्रांगण पहुँचे। मंदिर बिल्कुल ख़ाली था और हमने रुक कर वहाँ दर्शन किए। बाहर निकलते हुए मैंने बाबा को चरण-स्पर्श किया और उन्होंने वहाँ रखे चंदन को मेरे पूरे ललाट पर लगा दिया। फिर मेरी दायीं हथेली के मध्य में अपने अंगूठे से ज़ोर का दबाव देते हुए चंदन किया। पिछले दिन की चढ़ान से मेरे एक घुटने में जो दर्द उभरा हुआ था, जो मैंने बाबा को बताया भी नहीं था, वो झटके में ग़ायब हो गया। मैं चकित तो था, पर ये मेरे लिए अब इतनी आम बात हो चुकी थी कि गुरु कृपा को बस घुटने के दर्द ठीक करने भर की सीमा में मैंने नहीं बांधा।
वहाँ से हम फिर नीलकंठ से आती ऋषि-गंगा की बहती धार के बीचों-बीच जा बैठे। एक पत्थर पर बैठ गुरु-शिष्य उस बहती पवित्रा में अत्यंत गूढ़ विषयों पर संवाद करने लगे। परंपरागत, मेरे मन में जो जो प्रश्न आते जाते मैं पूछता जाता। बाबा कभी सीधा उत्तर देते, कभी मुझसे ही उत्तर निकलवाते, कभी मुझे सही उत्तर की तरफ ले जा कर ‘समय आने पर इसपे चर्चा होगी’ कह कर छोड़ देते। मैंने पूछा, “बाबा, कैसे पता चले की गुरु सच्चा है, कच्चा या नक़ली नहीं”।
उत्तर था, “पहले तो यदि भीड़ का गुरु है, तो गुरु नहीं। क्योंकि एक शिष्य पर भी काम करने के लिए गुरु को बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, उसके बारे में सब पता करना होता है, उसके हर बात का ध्यान रखना होता है। भीड़ में तो नाम तक नहीं पता होता।
दूसरी बात, अगर कोई चंद सर्टिफिकेट, या पैसों में कुंडलिनी जागरण या आध्यात्म बेचे, वो भी गुरु नहीं। जो ये बताता रह जाए कि ये संसार बहुत सुंदर है और यहाँ से निकलने का मार्ग ना बताए, वो भी गुरु नहीं। जो सिर्फ़ कथाएँ सुनाए वो भी गुरु नहीं। जो अँगूठियों ताबिजों के चक्कर में डाल कर इस संसार की ही परेशनियाँ ठीक करने का काम करवाता रहे, वो भी गुरु नहीं।
इसके बाद भी, ये एक साधारण व्यक्ति के लिए पहचान पाना बहुत कठिन है। सही रास्ता ये है, कि पहले तो मन में पक्की इच्छा बने सत्य को अनुभव करने की, फिर बिना छल कपट ईश्वर से बाहर निकालने की प्रार्थना हो। ऐसा होने पर, यदि कर्म अच्छे हुए, तो सद्गुरू स्वयं प्राप्त होते हैं। फिर सृष्टि ऐसी परिस्थिति बना देती है कि आप वहाँ तक पहुँच जाएँ। उसके बाद भी गुरु आपकी परीक्षा लेके देखता है कि आप पात्र हैं या नहीं। तब जा कर किसी को शिष्य स्वीकारता है।”
बाबा ने भी कई बार मुझे परखा था, और अब भी परखते हैं, जब कि ये पहला जन्म नहीं जब वो मेरे गुरु रूप में हैं।
हमने कई और विषयों पर बात की। आज के युग में जब आध्यात्मिकता का तमग़ा भी बस फ़ैशन बन गया है, जब उलटे-सीधे आसनों को लोग योग कहते हैं, गुरु-शिष्य परंपरा का लोप हो चुका है, और माया के अनेक परत आँखों पर परे हुए हैं, तब ये संदेश उन खोजियों तक जाना ज़रूरी है जो सच में स्वयं की खोज में लगे हैं, सत्य की खोज में लगे हैं।
हमें समझना होगा की ख़ुद को जान ने के लिए आँखें बंद करके बैठने से पहले आँखें अच्छी तरह से खोल कर संसार दर्शन करना होगा। जहाँ बँधे हैं वहाँ की कार्य प्रणाली ही नहीं मालूम, वहाँ का खेल ही नहीं समझे, तो निकलना तो दूर की बात है।

इस पावन उपनिषद के बाद, और व्यास गुफा के अनुभव के बाद मेरा मन अब बहुत सहज और शांत हो चला था। आँखें विश्व को बहुत विशाल दृष्टिकोण से देख पा रही थी, शक्ति बहुत केंद्रित थी। शाम होने को आयी, और हम मंदिर प्रांगण में कीर्तन में सम्मिलित होने पहुँचे।
बाबा भी आज एक भजन गाने वाले थे। उस प्रांगण में योगियों साधुओं के जिस वेश की हमारे मन में धारणा है, उस वेश के कई लोग दिख रहे थे। एक प्रौढ़ सज्जन, भगवान उनका भला करे, तो बस एक कपड़ा लपेटे दोनों हाथों को विचित्र रूप से पीछे की तरफ़ मोड़े हुए घंटों से बैठे थे – शरीर सूखा, चेहरे पर बुढ़ापा, और सामने पड़े वस्त्र पर भिक्षा में मिले कुछ रुपए। देख कर दुःख हुआ – योग को लोगों ने क्या समझ लिया और क्या बना लिया, ऐसे शरीर प्रताड़ना को आध्यात्म कहने वाले स्वयं को बस नीचे ही धकेलते हैं, और इनके कारण सच्चे योगी संत लोगों के बीच रहते हुए भी नहीं पहचान में आते।

भजन शुरू हुआ, मैं बाबा के बग़ल में बैठा था। मेरा मन गहरा होता जा रहा था, सारे ऊर्जा केंद्र सहज और समन्वय में आते जा रहे थे।
अचानक शक्ति हृदय (अनाहत चक्र) पर गहरी होने लगी। मेरा अंतर्मन श्री हरि विष्णु को ऊपर की ओर ताक बहुत तीव्रता से पुकारने लगा। मेरे आँखों से अनायास अश्रु की धारा बहनी शुरू हुई। मेरुदंड के आधार पर (मूलाधार चक्र) शक्ति ने तीव्र चोट करनी शुरू की। मेरा पूरा शरीर कई सौ वोल्ट के बिजली के झटके खाने लगा, साँस गहरी होती गयी। मेरुदंड ख़ुद ही बिल्कुल खिंच के सीधा हो गया। प्राण की विद्युतीय तरंग झटकों के रूप में पूरे मेरुदंड में तीव्र वेग से बिजली की तरह चलनी शुरू हुई। मैं जानता था कि आगे क्या होने वाला है, क्योंकि इस से पहले भी मैं ये अनुभव कर चुका था। मैं चाहता तो आँखें खोल कर रोक सकता था उसे, आस पास इतने लोगों के बैठने का ध्यान भी आया, पर सिद्धों से नीलकंठ पर की प्रार्थना, नारायण से चल रही उस वक़्त की प्रार्थना, अपने गुरु से की प्रार्थना, अपने परमगुरु महावतार बाबाजी की उपस्थिति को महसूस करने की प्रार्थना, और देवी के उस प्रसाद को मैं रोकना नहीं चाहता था। शरीर ख़ुद में सिमटता गया, विद्युत और चुम्बकत्व का समायोजित अनुभव मेरुदंड में बढ़ता गया। अत्यंत झन्नाहट वाली ऊर्जा शरीर को अंदर खींच रही थी। मन आनंद की लहरों में गोते खा रहा था। अहंकार के परत आँसु बन निकलते जा रहे थे। हाथों पर से वश छूट गया – दोनों हाथ अपने आप धीरे धीरे तने हुए किसी मुद्रा में ऊपर उठे – एक हृदय के पास, दूसरा सामने फैला हुआ। लिखते हुए अभी भी शक्ति मानो मेरुदंड में हल्के फुफकार छोड़ रही है। अंततः बाबा ने धीरे से अपना हाथ मेरे घुटने पर हल्का लगा दिया। धीरे धीरे मैं वापस आया। शरीर स्थिर था – पर चेतना गहराई में आनंद के गोते लगा रही थी। दोनों हाथ धन्यभागी हुए अपने आप जुड़े रहे बहुत देर। मेरा सर झुका रहा और अब प्रेम के भक्ति के आँसू निकल रहे थे – सृष्टि की शक्तियों ने ये जैसे इशारा किया था कि मेरे साथ किस तरह वो चल रही हैं।
बहुत देर बाद, जब भजन ख़त्म हुए, मेरी आँखें खुली, और मैंने बाबा को शीश झुका प्रणाम किया।
चारों ओर के लोग हतप्रभ हो देख रहे थे कि ये लड़का कौन है जिसे अभी ऐसी अनुभूति हुई। और उस से अधिक उन्हें ऐसा लग रहा था कि ये दूसरा लड़का कौन है जिसके चरण में इसने शीश झुका प्रणाम किया।
महावतार बाबाजी ने सृष्टि को क्रिया का वरदान दिया (अब वो भी विकृत कर बेची जाने लगी है कहीं कहीं). उस पूरे अनुभव में मुझे यूँ लगा जैसे उन्होंने मुझे पूरी क्रिया करा दी। यहाँ तक की मेरी साँसें भी उज्जयी मे स्वतः चलने लगी थी। अपने परमगुरु की तरफ़ से मैंने उसे क्रिया की दूसरी दीक्षा (पहली बाबा से) के रूप में माना।
मेरा इस अनुभव को बताने का बस एक उद्देश्य है – आप!

मैं अपने गुरु के चरणों में प्रणाम करता हूँ। अपने परमगुरु, और अपनी परंपरा – नाथ परंपरा के समस्त पूर्व व आगामी गुरुओं को प्रणाम करता हूँ।
मैं श्री हरि नारायण परमभक्तवत्सल वैकुण्ठवासी विष्णु को प्रणाम करता हूँ। मैं मूलधारनिवासीनी शक्ति माँ जगतजननी जगदंबा को प्रणाम करता हूँ। मैं ग्रहनक्षत्रादि समस्त उच्च सुर-जीवों को प्रणाम करता हूँ।

इसके आगे का संस्मरण अगले भाग में…

॥हरि ॐ॥
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– Himansh Kishore