जो दैहिक स्तर पर है वह मात्र दूसरों की देह ही देख सकता है। उसे दूसरे में सिर्फ और सिर्फ देह दिखाई पड़ती है। उसके लिए दूसरा व्यक्ति सिर्फ देह का गुणधर्म है; काला- गोरा, मोटा- पतला, लंबा- नाटा। बस सब पहचान देह से ही मालूम पड़ती है। उसे इसके अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं पड़ता औऱ वह स्वयं भी देह के बाह्य आवरण की साज-सज्जा में व्यस्त रहता है।
जो मन के तल पर है वह दूसरों को देह के अतिरिक्त उनके व्यवहार से देखता है परंतु अधिकतम उनके व्यवहार की कमियों को पर दूसरों को किसी न किसी रूप में छोटा दिखाने को चेष्टा में लगा रहेगा।
परंतु जो आत्मिक तल पर पहुंच पाता है वह व्यक्ति विशेष में कमियां नहीं यद्दपि जीवन मार्ग पर अग्रसर होने के अवसर देखता है। क्योंकि मन विचारों का संग्रह है और इन्द्रिय वश होकर भ्रांति पैदा करता है परंतु आत्मा इस से परे है, वह मन का पूर्णतः खिला हुआ स्वरूप है जिसमें विचारों की, इन्द्रियों की कोई भ्रांति नहीं। औऱ ऐसा खिला हुआ आत्मन ही सबमें प्रेम को देख पाता है जिसमें न कुछ दैहिक औऱ न कुछ मानसिक, सिर्फ और सिर्फ दैविक गुण ही होते हैं।
प्रेम और आनंद