महा-शिव-रात्रि आज पूरे भारत में शिव और पार्वती के मिलन के उपलक्ष्य में मनाई जाएगी।

पार्वती वो हैं जो पुनः पुनः पृथ्वी पर मत्स्य-पुत्री, सती, पार्वती, उमा के रूप में जन्म लेती हैं, और फिर अपनी एकाग्र भक्ति से पर्वतों को पार करते हुए शिव से जा मिलती हैं।

शिव एक योगी द्वारा प्राप्त की जाने वाली वो सर्वोच्च अवस्था है, जिसे वह योग के पवित्रतम दिव्य अभ्यास द्वारा ईश्वरत्व में समाहित होने से पहले प्राप्त करता है।

शिव उत्तर हैं – “रा” (राहु) – सहस्त्रार।
पार्वती दक्षिण हैं – “के” (केतु) – मूलाधार।
कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रार में जा के मिल जाना महाशिवरात्रि है। ये उचित गुरु द्वारा शिष्य का हाथ पकड़े उसे हर क़दम पर ले जाते हुए और उसपे ज्ञानपात करते हुए ही संभव है। इस तरह से शिष्य सर्वोच्च स्थिति – शिव तक पहुँचता है, मोक्ष तक पहुँचता है, स्वयं स्वस्थ होता है तथा दूसरों को भी सहज रूप से बिना किसी रुकावट के सौम्य स्वास्थ्य दे पाता है।

इसलिए महाशिवरात्रि तब मनाते हैं जब सूर्य (रा) कुंभ राशि में होता है – जो कि ब्रह्मांडिय दिव्य ज्ञान का सूचक है। और वह शतभिषा नक्षत्र में होता है – जो सौ चिकित्सकों का नक्षत्र है। सूर्य(शिव) और चंद्रमा(पार्वती) खगोलीय दृष्टि से आज 18 अंश दूर होते हैं, और 18 राहु (रा) का सूचक है।

आज हर जगह लोग पार्थिव शिवलिंगों पर जल, दूध, बिल्वपत्र आदि चढ़ाएँगे। पर सिर्फ़ पार्वती जैसे तपस्वी को ही मालूम है कि मेरुदंड ही पीनियल ग्रंथि (मस्तक के बीच उपस्थित ग्रंथि जो मेरुदंड का ऊपरी हिस्सा है) रूपी शिवलिंग तक पहुँचने का मार्ग है, जहाँ महायोगी शिव विराजमान होते हैं।
जहाँ पूरा जगत आज के दिन महाशिवरात्रि के महत्व और कहानियों में व्यस्त होता है, वहीं एक योगी गुरु-आज्ञा में आत्मसात हुआ परमेश्वर के साथ एक होने में लगा होता है।
जहाँ बाक़ी लोग भांग पीने, नाचने, शिव बारात में शामिल होने में लगे होते हैं, वो ये भूल जाते हैं कि बारात में भूत-प्रेत और जानवर ही शामिल हुए थे। देवताओं ने पूरे मिलन का साक्षात्कार किया था।

अर्थात्, हमें इस जन्म का उद्देश्य ना भूलते हुए पार्थिव लोभों का त्याग करना चाहिए, और तप व ज्ञान में स्वयं को रत करना चाहिए।