भागवत में कलियुग के बताये गए लक्ष्ण

 

1.कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठ- मूठ एक दूसरे से वैर भाव मोल लेते हैं एवं लालसा- तृष्णा की तरंगों में बहते रहते हैं। उस समय के अभागे लोगों में शूद्रों की ही प्रधानता रहती है।

 

  1. जिस समय झूठ- कपट, तन्द्रा- निद्रा, हिंसा- विषाद, शोक- मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण- प्रधान कलियुग समझना चाहिए।

 

  1. जब कलियुग के राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है, अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यंत निर्धन परन्तु खाते बहुत अधिक हैं। उनका भाग्य बहुत ही मन्द तो होता है परंतु चित्त में कामनाएं बहुत बड़ी बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और असत्य की वृद्धि हो जाती है।

 

  1. सारे देश में लूटेरों की प्रधानता हो जाती है। पाखंडी लोग नए नए मतों से वेदों को दूषित करते हैं। राजा बने लोग प्रजा की सारी कमाई का भक्षण करते हैं और ब्राह्मणधारी द्विज केवल पेट भरने और जननेन्द्रियों तृप्ति में लगे रहते हैं।

 

  1. गृहस्थ भिक्षा न देकर स्वयं भीख मांगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँव में बसने लगते हैं और सन्यासी धन के अत्यंत लोभी हो जाते हैं।

 

  1. स्त्रियों की काया (देह रूप) छोटा हो जाता है परंतु अंसतुष्टि बहुत बढ़ जाती है। वे कुल मर्यादा का उल्लंघन करके लाज जोकि स्त्री का आभूषण है उसे छोड़ बैठती हैं। वे सदा- सर्वदा कड़वी भाषा का प्रयोग करती हैं और चोरी- कपट में निपुण होती हैं। उनमें साहस बहुत बढ़ जाता है।

 

  1. व्यापारियों के हृदय क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी कौड़ी से लिपटे रहते हैं और धोखा करने लगते हैं। औऱ आपत्तिकाल न होने पर भी निन्दित निम्न श्रेणी के व्यापारों को अपनाने लगते हैं।

 

  1. स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यूँ न हो, जब स्वामी के पास धन का अभाव होने पर वह उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक कितना भी पुराना क्यूँ न हो, परंतु विपत्ति पड़ने पर स्वामी उसे छोड़ देता है। गाय दूध नहीं देती और लोग उनका परित्याग कर देते हैं।

 

  1. कलियुग के लोग बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे कामवासना की तृप्ति के लिए ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषयवासना के वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि वह माता पिता, बंधु मित्र को छोड़कर अपने स्त्री के परिवार से सलाहें लेने लगते हैं।

 

  1. शुद्र तपस्वियों का भेष बनाकर अपना पेट भरते हैं और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का कोई ज्ञान नहीं वे ऊँचे सिंहासन पट विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं।

 

  1. कलियुग में प्रजा सूखा पड़ने के कारण अत्यंत भयभीत हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरा शासकों द्वारा कर- वृद्धि। प्रजा के शरीर में केवल अस्थिपिंजर औऱ मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण रक्षा के लिए रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है।

 

  1. कलियुग में प्रजा शरीर ढकने के लिए वस्त्र, पीने के पानी और सोने के लिए दो हाथ भूमि से भी वंचित हो जाती है। सब सुविधाएं समाप्त हो जाती हैं और लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएं पिशाचों सी हो जाती हैं।

 

  1. कलियुग में लोग धन के लिए आपस में वैर विरोध करने लगते हैं और सदभाव औऱ मित्रता को तिलांजलि दे देते हैं। कौड़ियों के लिये अपने सगे- संबधियों की हत्या कर बैठते हैं और अपने प्रिय प्राणों से हाथ धो बैठते हैं।

 

  1. कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरने में लगे रहते हैं। पुत्र अपने वृद्ध माता पिता की भी रक्षा, पालन, पोषण नहीं करते और उन्हें अलग कर देते हैं। और पिता अपने निपुण से निपुण सब कामों के योग्य पुत्र की परवा नहीं करते और क्षुद्र समझ उसे अलग कर देते हैं।

 

श्रीमद्भागवत द्वादश स्कन्द, शुकदेव- परीक्षित संवाद