इस युग में जब दैहिक आँखों की प्रकृति को देखने की क्षमता भी न बची हो तो ऐसी आँखों से पउरुष और पउरुषोत्तम को देख पाने की तो क्या अपेक्षा की जा सकती है…न तो हर व्यक्ति के पास ऐसी आँखें हैं और न ही कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को आँखें प्र-दान कर सकता है…

“वि मूढा न अनुपश्यन्ति… जिसका तेज मूढ़ हो गया हो वह नहीं देख सकता…”
तेजहीन व्यक्ति…जिनका न ही कोई नियम है और न ही प्रकृति से किसी तरह का कोई संबंध, उसमें तेज हो भी कैसे सकता है…ऐसा व्यक्ति इन्द्रिय विहीन कार्यों में ही संलग्न रहेगा…

और, आज की सांसारिक व्यवस्था तो तेजहीन व्यक्ति ही पैदा करती है…जो कि सत्यता और धर्म (नियम) को किसी भी सांसारिक व्यक्ति और वस्तु के लिए छोड़ सकते हैं…गुरु और गुरु शिक्षाओं को धन, स्त्री या ख्याति के लिए नकार सकते हैं…क्योंकि यही आज के युग का प्रचलन है…यही आज का व्यवहार है, एकमात्र आवश्यकताएं…और, इसी तरह इस संसार रूपी कारावास में जीवात्मा को सम्मोहित कर बार बार जन्म लेने के लिये स्वतः ही तैयार किया जाता है…

तो जो आँखें ही अपने ही एक जन्म तक को ठीक ढंग से नहीं देख पा रही…जो सामने दिख रहा है, उसे ही नहीं पूर्णतः समझ पा रही, तो वह पउरुष और पउरुषोत्तम को देखने के लिये ज्ञान चक्षु तक का मार्ग कैसे तय कर पाएंगी…???

क्योंकि ज्ञान चक्षु होने के लिए जीवन में ज्ञान का उदय होना अनिवार्य है…ज्ञान के उदय के लिए, ज्ञान का स्त्रोत होना अनिवार्य है…और, ज्ञान स्त्रोत के लिए पहले मिली हुई देह और दो दैहिक आँखों का युक्त उपयोग करना आना अनिवार्य है…जोकि आज के युग में या तो पीड़ा- जनित है या कृपा-जनित है…

और, ज्ञान चक्षु के होने मात्र से ही जो अ-शाश्वत है और जो शाश्वत है…उसका भेद स्पष्ट होने लगता है…इस संसार में क्या संलग्न होने जैसा है और क्या सब छोड़ देने जैसा है, यह स्पष्ट हो जाता है…और, जिसे ये स्पष्ट होने लगा…उसे जीवात्मओं और पउरुष का भेद भी समझ आने लगेगा…

जिसे जो पउरुष का भेद समझ आने लगा, वह प्रकृति से एक होने लगेगा…जो कि पउरुषोत्तम की ओर जाने का मार्ग है…

“…पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषः…वही देख सकता है जिसके पास ज्ञान चक्षु है”

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