“वर्ण विद्या और ध्रुवीय रहस्य”- षडविद्या का छठा अंग “मार्ग”
divine vern-occular system and polarity- post from mahagurukul @ 3rd june
आपको कैसे आभास होगा कि आप जीवन मार्ग में उन्नत हो रहे हैं या नहीं…!!
इसकी सीधी और सरल उक्ति है कि आप अपने विचार, अपनी वाणी और अपना व्यवहार देखें… ‘प’ आपके उत्तरी ध्रुव को दर्शाता है और यदि आप उत्तर ध्रुव की ओर उन्नत हो रहे हैं तो आप त्रिगुणात्मक जीवन शैली, लालसाएं, तुलनाएं, भय, काम, क्रोध, और लोभ से बाहर आ रहे होंगे…
और, ये आपकी वाणी, आपके व्यवहार में पूर्णतः दिखेगा… आपकी वाणी से भय, क्रोध, लालच, काम, वासना, ईर्ष्या, द्वेष, दूसरों में खोट निकालना, संसारिक ख्यातियाँ, दिखावा, प्र-लोभन, अंधेरे की जीवन- शैली… ये सब शब्द समाप्त होने लगेंगे… ऐसे विचार समाप्त होने लगेंगे…क्योंकि ये सब आपके दक्षिणी ध्रुव को दर्शाता है…
परंतु, जब उरु की ऊर्जा का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर ऊर्ध्व-गमन (ऊपर की ओर) करता है तो आपकी वाणी, आपका व्यवहार प्रेम से परिपूर्ण, दक्षिणावर्ती आदतों से मुक्त रहते हुए, पूर्णतः उत्तरी आदतों जोकि प्र-कृतिक जीवनशैली, दैविक आहार, दैविक विहार, ज्ञान से भरा हुआ और पूर्णतः जागृत जीवन की ओर अग्रसर होता चला जाता है…
क्योंकि, आपके ‘प’अर्थात उत्तर में ही सारी इंद्रियाँ, आपका मुख, आपका कंठ, ज्ञान- चक्षु (त्रि-नेत्र) और सहस्त्रार स्थापित है… तो जो उत्तरीय होने में नियमित (discipline) और अभ्यास-रत (practice) होगा तो उसकी वाणी में से प्र-भू, ग-उरु, प्र-कृति के गुण, ज्ञान का वार्तालाप, प्रेम का भाव, प्रकाशिक आहार-चर्या (right input), दिन-चर्या (right daily routine) और ऋतु-चर्या (right behavior & speech)… और इन्हीं पर पूर्णतः केंद्रित (मध्यस्थ) जीवन-शैली होगी नकि बाहर से उत्तरी और भीतर से दक्षिणी…
आप जैसा नियमित अभ्यास करते हैं वैसे ही होने लगते हैं और यदि साधक को लगे कि वह मार्ग से भटक रहा हो तो भटकाने वाले विचारों का प्रत्याहार करे और निरन्तर-सतत अभ्यास में रत हो जाए… यही योग में साधना है…
“अभ्यास योगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना”- भगवद गीता… योग में युक्त रहते हुए अभ्यास करना और चेतना को किसी दूसरी ओर न जाने देना…
उत्तरीय होने पर प्रश्नों के उत्तर भी स्वतः मिलने लगते हैं… आप आत्म-निर्भर बनते हैं… आप अपने स्व में स्थित होते हैं…
और, इसी अभ्यास के लिए पूरा एक जन्म मिलता है… पृथ्वी इस बृह्मांड के मध्य में है और पृथ्वी पर पार्थिव देह इसी अभ्यास के लिए मिलती है… दक्षिणावर्ती अभ्यास दक्षिण अर्थात न-र-क (न प्रकाश और न विद्युतीय ऊर्जा) में और उत्तरीय अभ्यास उच्च-लोकों में ले जाने वाला होता है…
और, अभ्यास नियमित, निरन्तर और प्रति-दिन, पल, घटी का होना चाहिए…