“भागवत ज्ञान- पंचम स्कन्ध- पंचम अध्याय”
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम् पुरुषार्थ मानता हो- वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्र को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम् पुरुषार्थ मानते रहें तो उन्हें प्रेमपूर्वक समझा-बुझा कर मूढ़ कर्म में प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों में लगाना तो ऐसा ही है, जैसे अंधे मनुष्य को जान- बूझकर गढ़े में धकेल देना। इससे भला किस पुरुषार्थ की सिद्धि सिद्धि हो सकती है।
अपना सत्य कल्याण किस बात में है, इसको लोग नहीं जानते; इसी से वे तरह तरह की भोग-कामनाओं में फंसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिए आपस में वैर करने लगते हैं और निरन्तर विषयभोगों के लिए ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं करते कि वैर- विरोध के कारण नरकादि अनंत घोर दुःखों की प्राप्ति होगी।
गढ़े में गिरने के लिए उल्टे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँखवाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान- बूझकर भी उसे उसी राहपर जाने दे या जाने के लिये प्रेरणा करे।
जो अपने प्रिय संबंधी को भगवद् मार्ग का उपदेश देकर मृत्यु फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं हैं, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं हैं।